राजस्थान का हर किला किसी न किसी शूरवीर योद्धा की कहानी बयां करता है। इनमें से ऐसा ही एक किला है – चित्तौरगढ़ का किला। यह किला राजस्थान में स्थित है।
चित्तौरगढ़ मेवाड़ व उसके इतिहास के लिए जाना जाता है। चित्तौरगढ़ की स्थापना बप्पा रावल ने 8वीं शताब्दी में की थी। यह किला राजपूती परम्परा व उनकी गौरवशाली वीरता का प्रतीक है। लेकिन अब यह किला एक खंडहर बन चुका है।
पहले इस किले पर गुहिल वंश का शासन था। उनके बाद सिसोदिया वंश ने इस पर शासन स्थापित किया। चित्तौरगढ़ का किला राजस्थान के प्रमुख दर्शनीय स्थलों में से एक है।
यहाँ प्रत्येक वर्ष हज़ारों सैलानी घूमने के लिए आते है और इसकी भव्यता का अवलोकन करते है। भारत के इतिहास के पन्नों में चित्तौरगढ़ का यह किला एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है। इस किले पर अनेकों आक्रमण हुए। लेकिन हर बार यह किला अपनी गरिमा को बनाये रखने में कामयाब हुआ है।
कहा जाता है कि चित्तौरगढ़ की रानी पद्मिनी बहुत अधिक रूपमती थी। आज भी महल के प्राचीन खंडहर रानी पद्मिनी के जौहर की गाथा सुनाते है। सन 1303 ईस्वी में अलाउद्दीन ख़िलजी ने रानी पद्मिनी का प्रतिबिंब दर्पण में देखा तथा रानी पद्मिनी के रूप को देखकर मोहित हो गया। और रानी पद्मिनी को प्राप्त करने की लालसा उसके मन में जग गयी।
इस कारण अलाउद्दीन ख़िलजी ने चित्तौरगढ़ पर आक्रमण कर दिया। लेकिन रानी पद्मिनी ने अपने मान-सम्मान की रक्षा करने के लिए महल की अन्य महिलाओं के साथ अग्नि में समर्पित हो गयी तथा मृत्यु को प्राप्त हो गयी।
चित्तौरगढ़ किले का इतिहास
चित्तौरगढ़ का यह किला एक बहुत विशाल किला है। जिसे 7वीं शताब्दी के बाद मौर्य शासकों ने बनवाया था। जिसका नाम मौर्य शासक चित्रांगदा मोरी के बाद ही रखा गया था। 15वीं से 16वीं के मध्य चित्तौरगढ़ किले को 3 बार लूटा गया था। सन 1303 में हुए युद्ध में अलाउद्दीन ख़िलजी ने राणा रतनसिंह को पराजित किया था।
सन 1534 ईस्वी में गुजरात के सुल्तान बहादुर शाह ने विक्रमाजीत सिंह को परास्त किया था। सन 1567 ईस्वी में अकबर ने महाराणा उदयसिंह द्वितीय को पराजित किया था।
जिन्होंने इस किले को छोड़कर उदयपुर की स्थापना की थी। तीनों युद्धों में राजपूत सैनिकों ने अपने पूरे बल के साथ युद्ध किया था। उन्होंने महल व राज्य को बचाने के लिए हर संभव कोशिश की थी। लेकिन हर बार उन्हें हार का ही सामना करना पड़ा था।
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चित्तौड़गढ़ किले की कहानी
प्राचीन गाथाओं में कहा जाता है कि इस किले का निर्माण 5000 वर्ष पूर्व पांडवों के दूसरे भाई भीम ने करवाया था। एक बार भीम धन की खोज में निकला था। रास्ते में भीम को एक योगी जी मिले।
भीम ने योगी जी से पारस मणि माँगी। योगी ने भीम की मांग स्वीकार कर ली लेकिन साथ में एक शर्त रखी कि भीम रातों-रात इस पहाड़ी पर एक दुर्ग का निर्माण कर दे।
भीम ने अपने शौर्य व देवरूप भाइयों की मदद से करीब-करीब यह कार्य समाप्त कर ही दिया था। सिर्फ दक्षिण के हिस्से में थोड़ा कार्य शेष बचा था।
भीम का कार्य देखकर योगी के ह्रदय में कपट ने स्थान ले लिया और उसने अपनी दिव्यशक्ति से मुर्ग़े की आवाज में वाग दिया। जिससे भीम सवेरा समझकर निर्माण-कार्य समाप्त कर दे तथा उसे पारस मणि न देना पड़े।
मुर्ग़े की वाग जैसे ही भीम ने सुनी तो भीम को क्रोध आ गया। और उसने क्रोध में अपनी एक लात ज़मीन पर दे मारी। इससे उस जगह एक गड्ढा बन गया।
जिसे लोग भीमलत तालाब के नाम से भी जानते है। जिस स्थान पर भीम ने विश्राम किया वह स्थान भीमताल कहलाता है। जिस तालाब पर योगी ने मुर्ग़े की आवाज निकली थी। वह स्थान कुकड़ेश्वर कहलाता है।
इतिहासकारों के अनुसार इस किले का निर्माण मौर्य वंश के राजा चित्रांगदा ने 7वीं शताब्दी में किया था। तथा इसे अपने नाम पर चित्रकूट रखा था। मेवाड़ के प्राचीन सिक्कों पर एक तरफ चित्रकूट का नाम अंकित मिलता है।
बाद में यह चित्तौर कहा जाने लगा। चित्तौरगढ़ युद्ध में सैनिकों के पराजित होने के बाद राजपूत सैनिकों की लगभग 16,000 महिलाओं व बच्चों ने जौहर कर लिया था तथा अपने प्राणों की आहुति दी थी।
चित्तौरगढ़ किले की संरचना व बनावट
80 मीटर ऊँची पहाड़ी पर स्थित चित्तौरगढ़ का यह किला 700 एकड़ भूमि में फैला हुआ है। इस किले के अंदर बनी पट्टियां व छतरियां राजपूती वीरता को प्रदर्शित करती है। इसके बादल पोल, भैरव पोल, हनुमान पोल व राम पोल मुख्य द्वार है।
इस किले के भीतर कईं स्मारक व राजपूती वास्तुकला के उत्कृष्ट नमूने है। ऐतिहासिक दस्तावेजों के अनुसार चित्तौरगढ़ का किला 834 वर्षों तक मेवाड़ की राजधानी रह चुका है।
कहा जाता है कि इस किले को 8वीं शताब्दी में सौलंकी रानी ने बप्पा रावल को दहेज़ के रूप में दिया था। सन 1567 में अकबर के शासनकाल में इस किले को लूट कर इसे नष्ट किया गया था।
लेकिन लंबे समय बाद सन 1905 में इस किले की मरम्मत की गयी थी। चित्तौरगढ़ किले में बहुत से देखने योग्य दर्शनीय स्थल है। सन 2013 में चित्तौरगढ़ किले को यूनेस्को वर्ल्ड हेरिटेज साइट में शामिल किया गया था।
विजय स्तंम्भ
मालवा व गुजरात के मुसलमान शासकों पर अपनी विजय का जश्न मनाने के लिए मेवाड़ के शक्तिशाली शासक महाराणा कुंभा ने सन 1440 ईस्वी में इस ईमारत का निर्माण करवाया था।
विजय स्तंम्भ 9 मंजिला ईमारत है और यह 37 मीटर (122 फ़ीट) ऊंची है। विजय स्तंम्भ में हिन्दू देवी-देवताओं की उत्कृष्ठ मूर्तियां बनी हुई है। जो आज भी रामायण तथा महाभारत की घटनाओं का चित्रण करती है।
कीर्ति स्तंम्भ:
22 मीटर ऊंचे इस स्तंम्भ का निर्माण 12वीं शताब्दी में जैन व्यापारी ने करवाया था। यह स्तंम्भ जैनियों के तीर्थकर आदिनाथ जी का है। यहाँ पर जैन देव गुणों की आकृतियां सुसज्जित है।
रानी पद्मिनी का महल:
तालाब के किनारें निर्मित यह एक बेहद शानदार महल है। कहा जाता है कि यही पर राणा रतनसिंह ने अलाउद्दीन ख़िलजी को दर्पण में रानी पद्मिनी की झलक दिखाई थी। रानी पद्मिनी की झलक देखकर अलाउद्दीन ख़िलजी की रानी पद्मिनी को पाने की चाह बढ़ गयी थी और इस कारण उसने सम्पूर्ण चित्तौरगढ़ का विनाश कर दिया था।
कालिका माता का मंदिर:
मूल रूप से सूर्य मंदिर के 8वीं शताब्दी में निर्मित इस मंदिर को 14वीं शताब्दी में कालिका माता मंदिर में परिवर्तित कर दिया गया था। जो कि शक्ति व वीरता का प्रतीक है।
मीराबाई का मंदिर:
भगवान कृष्ण की परम् भक्त मीराबाई का मंदिर आकर्षक उत्तर-भारतीय शैली में बना है। मीराबाई का जन्म संवत 1504 विक्रमी में मेड़ता में रतन सिंह के घर हुआ था। मीराबाई का विवाह उदयपुर के महाराणा कुंवर भोजराज के साथ हुआ था। कहा जाता है कि मीराबाई यहां पर बैठकर कईं घण्टों तक भगवान कृष्ण की आराधना करती थी।
चित्तौड़गढ़ किले का प्रवेश शुल्क:
भारतीय | 10 रुपये |
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विदेशी पर्यटक | 100 रुपये |